Monday, 11 July 2016

निबंध दहेज प्रथा एक सामाजिक अभिशाप.

              "दहेज प्रथा एक सामाजिक अभिशाप"

           "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी|
             आंचल में है दूध और आंखों में पानी||"

1.प्रस्तावना:-
             समाज के अंतर्गत समस्याओं का विकराल जाल फैला हुआ है| यह छोटी छोटी  तुच्छ तथा साधारण समस्याएं कभी-कभी जी का जंजाल बन जाती है|लाड-प्यार से पाली-पोषित शिशु भी बड़ा होकर मां-बाप पर बोझ बन जाती है उसी तरह यह समस्याएं भी जी के जंजाल की तरह बन जाती है| समाज के रुप को विकृत तथा घिनौना बना देती है, उन समस्याओं में से एक विकराल समस्या है, दहेज प्रथा समाज की जड़ो को खोखला किए दे रही है, इसे समाज तथा व्यक्तिगत प्रगति पर विराम सा लग चुका है| अनुराग एवं वात्सल्य का तेज दहेज युग परिवर्तन के साथ खुद भी परिवर्तित होकर विशाल रूप मैं उपस्थित हो रहा है|

2.दहेज का आशय एवं स्वरुप:-
                                    साधारण रूप में दहेज वह संपत्ति है जिसे पिता अपनी पुत्री को इच्छा अनुसार प्रदान करता है| पुराने समय से ही दहेज का चलन चल रहा है, इसके अंतर्गत के समय वर पक्ष और कन्या पक्ष को आभूषण, वस्त्र एवं रुपए प्रदान किए जाते थे परंतु समय के साथ-साथ यह परंपरा एवं परवर्ती अपरिहार्य तथा आवश्यक बन गई, आज वर पक्ष दहेज के रूप में tv, फ्रिज, मोटर साइकल एवं कार, वॉशिंग मशीन आदि की निसंकोच मांग करता है| इनके अभाव में सुशिक्षित एवं योग्य कन्या को मनचाहा जीवन साथी नहीं मिल पाता है|
इस स्थिति में निर्धन पिता की पुत्री या तो अविवाहित रहकर पिता, सदा परिवार के लिए बोझ बन जाती है| बेमेल विवाह योग्य वर के साथ जीवन जीने के लिए विवश हो जाती है| दहेज की कुप्रथा ने अनेक युक्तियों को काल के मुंह में डाल दिया है, समाचार पत्र आए दिन इस प्रकार की आवाज में घटनाओं से भरी रहती हैं| रावण ने सीता का अपहरण करके उसकी जिंदगी को अभीशप्त, दुख-दर्द तथा आंसुओं की गाथा बनाया था, परंतु दहेज रूपी रावण ने असंख्य कन्याओं के सोभाग्य सिंदूर को पोंच कर उनकी जिंदगी को पीड़ाओं की अमर गाथा बना दिया है|

3.दहेज प्रथा का अविर्भाव:-
                                यदि इतिहास की धुंधली दुरबीन उठाकर भूतकाल की पगडंडी पर दृष्टिपात करते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि दहेज प्रथा का प्रचलन सामंती युग में भी था| सामंत अपनी बेटियों की शादी में आभूषण एवं दास, दासियं उपहार के रुप में प्रदान किया करते थे|समय-समय पर इस बुरी प्रथा ने संपूर्ण समाज को भी अपनी परिधि में समेट लिया इस कुप्रथा के लिए झूठी शान रुढ़िवादिता तथा धर्म का अंधानुकरण उत्तरदाई है|

4. दहेज के दुष्परिणाम:-
                            दहेज  के फलस्वरूप आज सामाजिक वातावरण विषैला, दूषित एवं घृणित हो गया है| अनमोल विवाहों की भरमार है जिसके कारण परिवार एवं घर में प्रतिपल संघर्ष एवं कोहराम मचा रहता है|जिस बहू के घर से दहेज में यथेष्ट धन नहीं दिया जाता, ससुराल में आकर उसे जो पीड़ा एवं ताने मिलते हैं| उसकी कल्पना मात्र से शरीर सिहरने लगता है| कभी-कभी उसे ससुराल वालों द्वारा जहर दे दिया जाता है या फिर जला कर मार दिया जाता है|मनुष्य  क्षणभर के लिए या सोचने के लिए विवश हो जाता है, कि आदर्श भारत का जिंदगी का रथ किस ओर अग्रसर हो रहा है| प्रेरणा सूत्र में बंधने के पश्चात जहां संबंध, अनुराग एवं भाईचारे के होने के चाहिए वह आज कटुता एवं शत्रुता पैर पसारे हुए हैं|

5.नौजवानों का कर्तव्य:-
                            दहेज प्रथा समस्या का निराकरण समाज एवं सरकार के बूते का कार्य नहीं है|इसके लिए तो युवक एवं युक्तियों को स्वयं आगे बढ़कर दहेज ना लेने एवं देने की द्रण प्रतिज्ञा करनी चाहिए|मात्र कानून बनाने से इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता है जितने कानून नियमित किए जा रहे हैं, दहेज लेने एवं देने वाले शोध ग्रंथों की तरह उपाय खोजने में सफल हो रहे हैं| इस प्रथा को समाप्त करने के लिए महिलाओं को इस संदर्भ में प्रयास करना चाहिए, इसके लिए एक प्रभावी andolan भी चलाना चाहिए सरकार को भी कठोर कानून बनाकर इस बुरी प्रथा पर प्रतिबंध लगाना चाहिए|
                             शासन में सन् 1961 में दहेज विरोधी कानून पारित किया था| सन 1976 में इसमें कुछ संशोधन भी किए गए थे, किंतु फिर भी दहेज पर अंकुश नहीं लग सका| समाज सुधारक भी इस दिशा में पर्याप्त सहयोग दे सकते हैं, दहेज लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार आवश्यक है| सहशिक्षा भी दहेज प्रथा को रोकने में सक्षम है, सामाजिक चेतना को जागृत करना भी आवश्यक है|

6.उपसन्हार:-
               अनेक वर्षों से इस बुरी प्रथा को समाप्त करने के लिए भागीरथ प्रयास किया जा रहा है, लेकिन दहेज का कैंसर ठीक नहीं होने के स्थान पर निरंतर विकराल रुप धारण करता जा रहा है| इस कुप्रथा का तभी समापन होगा, जब वर पक्ष एवं कन्या पक्ष सम्मिलित रुप से इस प्रथा को समाप्त करने में सक्षम होंगे, यदि इस दिशा में जरा भी उपेक्षा अपनाई गई तो यह ऐसा कोड है जो समाज रूपी शरीर को विकृत एवं दुर्गंध से आ पूरित कर देगा| समाज एवं शासन दोनों को जोरदार तरीके से दहेज विरोधी अभियान प्रारंभ करना परम आवश्यक है|
  अब तो एक ही नारा होना चाहिए- "दुल्हन ही दहेज है" यह नारा मात्र कल्पना की भूमि पर विहार करने वाला ना होकर समाज की यथार्थ धरती पर स्थित होना चाहिए, तभी भारत के कण-कण से सावित्री, सीता एवं गार्गी तुल्य कन्याओं की ही यह ध्वनि गूंजेगी|
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